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अक्तूबर, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कौन सी उड़ानें !

हम अज़नबियॊं की उड़ानॊं से भ्रमित अपने धरातल से अनिभिज्ञ , अपनी आंखॊं पर रंगी पर्दे ड़ाले  , अपने इन्द्रधनुष की अनुभूति से अंजाने  ! अपने जीवन की रफ़्तार बढाते  , चले दुनिया से कदम मिलाने , बिन देखे , बिन सोच विचारे अंजाने पंखॊं के लाचारे  ! दुनिया एक हो रही विज्ञान से , दुरियां मिट रही आसमान से , हम भी बढ सकते हैं अभिमान से लेकिन सिर्फ़ अपनी पहचान से  ! प्रगति की ये परिभाषा नहीं  , कि हममें कोई प्यासा नहीं , इंसान की जो प्यास है वही प्रगति का इतिहास है   ! पैसा सिर्फ़ एक ज़रुरत है  , और जरुरत आदमी की कमज़ोरी कमज़ोरी हमारी पहचान है , आखिर किस बात का अभिमान है  ? अपनी खुशी को लेकर सब परेशान  , ये हमारी तरक्की के विचित्र आयाम  , जिसके पास काम , करे आराम कैसे और जो बेकाम , वो करे आराम कैसे? बंदुकें सरकार बन गयी हैं  , धर्म की राहें दीवार बन गयी हैं  , इंसान की खोज , ग़ुमशुदा की तलाश जो ढुंढे उसे वही    ईनाम ! मैं अपने विचारॊं क...

खुली दुकान है!

छलकते लम्हे वक्त को मुँह चिड़ाते हैं, घड़ीयों के चक्कर मे कहां कभी आते हैं! कांटे घड़ी के क्या समझें वक्त की नज़ाकत, युँ चल रहे हैं धुन में जैसे सदियॊं की कवायत! भगवान को भागवान करते हैं युँ जीने का सामान करते हैं अपने यकीन से जुदा हैं लोग इबादत को दुकान करते हैं! तन्हाई की दुकानें कितनी, खरीददार कोई नहीं, जज़बातों के बाजार में, अपना यार कोई नहीं ! ससुरे सच सारे, और हम बेचारे, लगाये ताक बैठे हैं देखें अब बारी आयी है सो,अब तक तो पाक बैठे हैं!  हालात सारे बेहया ससुर बने बैठे हैं हाल हमारे नयी दुल्हन बने बैठे हैं! बातॊं-बातॊं में आ गये आसमान तक, युँ ही कुछ देर और कुछ आसान कर! दुआ है कि दुनिया थोड़ी काली हो, रंग कोई भी, गाली न हो सच को इश्तेहार नहीं लगता, और रंग को कोई माली न हो! रंग बिखरे हैं कितने मुस्कानों में, जो रह जाते हैं अक्सर छुप कर बहानॊं में, चलो लटका दें कुछ मस्तियाँ दुकानों पे,   नज़र कहाँ जायेगी आसमानों पर!  वक़्त खोटा है इसके झांसे में न फ़सिये, दिन गिनना छोड़िये, जी भर के हंसिये! मैं और मेरी आवारगी, हालात की कारागिरी, अजनबी मौके हर मो...

युँ हो कि !

उड़ो उस सपने की तरह          जो इस धरातल पर पला है बहो उस खुशबू की तरह         जो कुछ मांगती नहीं चलो उस लहर की तरह,         जो जीती है, हर पल के लिये         अंत की तस्वीर आखॊं में लिये  गिरो उस बीज़ की तरह         जो बादल के बरसने और         सुरज के चमकने का कारण बनता है रुको तो ऎसे कि किसी के          चलने का कारण बनो मुस्कराओ, मदमाओ          आंधी में झुमते तरुवर की तरह बहक जाओ भी तो          पैरॊं में अपनी जमीं को लिये पहचान हो अपनी ऐसी कि          कहीं भी खो जाओ बन के नदी सागर को भिगो जाओ!

गाली-ए-दीवाली! (the curse of Diwali)

फ़िर वो वक्त कि निकले मुहं से गाली, आ गयी फ़िर से साली दीवाली, अब रात को सुरज चमकेंगे, और हवा को सबक सिखाया जायेगा, कानों की वाट लगायी जायेगी, और कमीनी आतिशबाज़ी अंधियाएगी! पैसा और बेशरम बन जायेगा! खाली जेबों को मुंह चिड़ायेगा, शुभकामनायें बिन बुलाई मेहमान होंगी, कपटी इरादों में नयी जान होगी,  ताकतवरों को रिश्वत देने का मौसम,  फ़िर चाहे उनका नाम भगवान हो, या पहलवान, सबकी आंखों में सरेआम लक्ष्मी नंगा नाच करेंगी, उद्दंड़ ईमान की बोली होगी! गंवार बच्चों के पसीनों की लड़ी  अमीर अंहकार की बलि चड़ेंगी, अगली सुबह मिलिये, हमारी गौरवपुर्ण संस्क्रती, कचरा बन गलियों में धुल चाट रही होगी, और कुछ बेगैरत कमरें उन में, अपनी नालायक किस्मतें तलाश रही होंगी! और जब शाम यौवन पर आयेगी, तो सोलह से चालिस की कुल्लछिनियाएं, लाल बत्तीयों वाली सड़कों पर, ललचाने वाला लाल लगाकर बड़ी ललायत से लचकती कमर और लुके-छिपे कमरों की लालसा जगाकर कितने मां के लालों की द्रोपदी बनेंगी, अपने "लाल" को निर्वस्त्र करके, समाज़ की गाली होंगी, और अनगिनत कुंठाओं की दीवाली होंगी!   इस उम्मीद से क...

कौनसा दर्द!

कितना दर्द, रीढ़ की हड़्ड़ी से दोस्ती कर, सारे सवालॊं को धमकाता हुआ, दुनिया की रीत की रोटी, खाने को उकसाता हुआ! जो होता आया है वही कहो, जो धागा मिलता है उसी को बुनो जो रास्ता जाना-माना(पुराना) है, उसी को चुनो,  दर्द जैसे कुछ कम था सो, रिश्ते,प्यार, और दोस्ती सब अपना फ़र्ज़ करते हैं, समीकरण कहते हैं, कर्ज़ करते हैं!  शुक्रगुज़ार हुँ, या एहसानमंद? मुंकसिर-मिज़ाजी(humility) मेरे सवालों को तनहा न कर दे,  दर्द और भी हैं शरीर के सिवा, उन सवालों के जो गहरे जाते हैं रुह को चुभते हैं और जिनके नुस्खे नहीं आते,  मेरे रास्तों के शौक ही ऐसे हैं, एक होने को चला हुँ, और अकेला हुँ, सब की नसीहत, जिम्मेदारी! कहते हैं भाग रहा हुँ, क्या अर्ज़ करुं, सदियॊं का सफ़र है, और मैं अभी-अभी जाग रहा हुँ!  (एक सहपाठी के दर्द के साथ एक होने की गरीब कोशिश,जो हाल में रीढ़ पर हुए एक ऑपरेशन से संभल रहा है)

अपने गिरेबान!

कहां रवि और कहां कवि एक अपनी ही आग में जलता है  , उसे क्या खबर कि  , उसी से जग चलता है ? दुसरा कहने से ड़रता है  , सीधी बात , घूमा - फ़िरा के  , चिंगारी पानी में लपेट के  , प्रवाह के वेग को शब्दॊं में समेट के  , और उम्मीद ये , उसकी आग दुसरों को जलायेगी  , चिंगारी एक दिन आग बनायेगी  ,    और वो अपने अहं की चट्टान चढ खुद की पीठ थपथपा कामयाबी अपने सर लेगा  ``````````````````````````````` और एक तरफ़ सुरज़ जो कल के , दू धदांत वाले गुमनाम बादल को भी गुज़रने देते हैं , चाहे वो उन्का मुंह काला कर के गुजरा हो शर्म से बादल ही पिघल जाते हैं  , और सावन के दिन आते हैं  , उन दिनों की ही  , कितने कवि रोटी खाते हैं और उनमें सुर बिठा  , कितने गले इतराते हैं और उस पर ये दावा  , जहां न पहुंचे रवि , वहां पहुंचे कवि ? मुर्खता या अंहकार  , कवि अंधेरों में अपनी रोटी सेंकते हैं  , चाहे वो खुद के हों , या दुनिया के और रवि अंधेरों को आज़ाद छोड़ता है अपने स...

सच से साक्षात्कार।

पेड़ों में खामोश ठंड़क,  और साथ में, कलकलाती कोलाहल धारा, आसमान को जमीं करते पाइन पैरों तले जमीन के एहसास से दुर, पेड़ों पर जीवित मशरुम को खाती , काली गिलहरियां, एक दुसरे के पीछे,  पेड़ के उपर नीचे, टेढे-मेढे रास्तों पर सीधी चलती, और उस पेड़ से फ़ुदकती रोबिन, या शायद रोबिन जैसी, ठंडी खामोशी, और उसे और खामोश करती पहाड़ी बर्फ़ीली धारा, प्यार, स्रजन, और विनाश, सब यहीं मौज़द था संकेत में नहीं , सोच में, एहसास में नहीं सच में, साथ में, हाथ में (जिद्दू क्रष्णमुर्ती के शब्द, मेरी नज़र में)

उंसीयत

बांध लो तो मैं हुं , छोड़ दो तो मेरी उंचाईंयां , किसने समझी जहां में उंसीयत की गहराईयां। रोक लो तो मंजिल , साथ दो तो रास्ता , जिंदगी के सफ़र की हैं बड़ी दुश्वारियां , चल रहे तो सफ़र है, रुके गये मकाम कोई, हाथ में बस हाथ है, क्यों और सामान कोई? धुप जलने को नहीं , न छांव बुझने को , पनपने देती नहीं हमें रिश्तॊं की परछाईंयां। आज़ तुम खफ़ा हो कल हमारी बारी है , आसां नहीं समझना रिश्तॊं की बारीकियां। मेरी खता नहीं , कहते हैं वो , मेरी भी नहीं , ले डूबेगी उंसीयत को अंह की बीमारियां। जमीं - जमीं रहे और हो आसमां बुलंद। उंसीयत एसी जो करे दो जहां बुलंद।। ठहर जाये किसी वज़ह किसी मोड़ पर ये रिश्तॊं की पहचान नहीं। न उड़े पंछी तो आसमान नहीं , बिन उंसीयत के बागवां नहीं।।  इससे अच्छी क्या बात हो,  अपना साथ ही हालात हो!

थोड़ा कम !

सताने लगी है शाम अब कम थोड़ी कम, आती है याद तेरी, अब कम थोड़ी कम ! जब से जिंदगी को समझने लगे हैं हम, फ़ांसले मौत से हुए कम थोड़े कम ! जब से तेरे साथ चलने लगे हैं हम, फ़ांसले मंजिलॊं से हुए कम थोड़े कम! कोई भी दवा ली जाये अगर ज्यादा, असर होता है उसका कम थोड़ा कम! आशियां तो हुए थे पहले ही बहुत कम, दिल में भी रहते हैं लोग कम थोड़े कम! याद आती है उनकी कम थोड़ी कम, भुलाने लगे उनको अब कम थोड़ा कम! (जी .वाय. भिड़े  को याद करते हुए जिनके पुछे सवालॊं को मैं आज भी जी रहा हुं)

नीलिमा

दो अंतहीन बादल और उनके बीच नीले आसमान का कतरा इतनी नीलिमा इतनी स्वछंद कोमल और पिघलती कुछ ही लम्हों में घुल जायेगी जैसे कभी थी ही नहीं! वो नीलिमा फ़िर कभी नज़र नहीं आयेगी क्या तुमने उससे रिश्ता नहीं जोड़ा . . .? (जिद्दू क्रष्नमूर्ती की चहलकदमी और उस दौरान आये विचारॊं का काव्यअनुवाद )

एक सुबह _ _ _ कोई एक!

अलसाये हुए ख्वाब, मुंदी हुई आंखे किसको फ़ुर्सत है कि सुबह करे एक अंगड़ाई लें, चलो आज फ़िर दोपहर करें !  पहलु से कुछ लम्हे, अभी निकले हैं, कुछ लम्हॊं को, ज़ज्ब  करने! जो हमेशा मेरी करवटॊं के साये हैं और एक मुस्कराहट, जो बिखर के आज़ाद है, किसी भी कंधे बैठने को, कैसे कहुं ये मेरी है! हालात कि, ज़ज्बात की, या अभी अभी जो गुजर गयी, एक नन्हे लम्हात कि! और ये आराम नहीं है, सिर्फ़ पैर पसारे हैं, हाथ खड़े नहीं किये, जिंदगी दौड़ नही है, क्या समझेंगे वो, जिनके रास्तॊं को मोड़ नहीं हैं!  झुले जिंदगी के, कुछ भुले नहीं हैं, दो घड़ी अलसाये हैं, ललचाये नहीं हैं, हुँ! शायद थोड़ा सा, एकटु! पर थोड़ी आंखे भी खुली हैं, अभी-अभी सुबह धुली है, सुखने तो दीजे, फ़िर आज़ को इस्त्री करेंगे, स्त्री है, तो क्या? जरुरत को मिस्त्री करेंगे!  और सुबह अकेली हो जाती, सो हम ठहर गये, चंद करवटें, कुछ‌ अंगड़ाई, क्या हुआ जो पहर गये, अपनी ही सांसॊं का, धड़कन का, साथ हम ही नहीं देंगे क्या?  एक दुनिया ये भी है, जो भागती नहीं, बिन आँखें बंद किये जागती नहीं, जहां रुकना आराम नहीं है(हराम वाला) सिर...

बदलते लम्हे!

छटपटाते लफ्ज़, जब हलक से निकलते हैं, चहक जाते हैं, महक जाते हैं, कभी बहक जाते हैं, कुछ असर होते हैं, कुछ कसर रहते हैं आज़ादी के ऐसे ही सफ़र रहते हैं! उम्मीद रास्तों से,  सफ़र को मंज़ूर कहाँ हैं, अधूरे रहे मुसाफ़िर,  और हर ओर मकां हैं! अरमानों की आग पर होंसलों को सेंकिये, कोशिशों के हथौड़े, जब जोर से पड़ेंगे, फ़िर रास्ते मन-माफ़िक मुड़ेंगे हाल से, हालात से, रुठे हुए सवालात से, किसका जिक्र करें? और किस माइका लाल से? घड़ियां चुराते हैं दिन से,  कि चंद लम्हे हाथ आयेंगे आप के हाथ में रख्खे हैं  हाथों से फ़िसल जायेंगे!  आप के हाथ में रखा है हाथ कि संभल जायेंगे, घड़ियां चुराते हैं दिन से,  कब चंद लम्हे हाथ आयेंगे! काबिल हैं मौसम,और हालात भी मेहरबान हैं, कुछ दिन जिंदगी कितनी आसान है, आपके सफ़र में अगर अब भी जान है, याद रहे सारी मुश्किलों को शमशान है! कितने यकीं हैं सामने किसको आसमान करें रास्ते मिल जायेंगे, साथ, कौनसा सामान करें?

नयी सुगंधें!

मुश्किलें हांसिल हैं उनको, जो सफ़र के काबिल हैं, क्युँ तवज़्ज़ो उन सोचों का जो अभी तक जाहिल हैं! पेशानिओं के बल गिनने को फ़ुर्सतें न हो हांसिल, मुस्करा और करती जा अपने सारे दिन काबिल! मुसरुफ़ियत के दिन सारे, अब तेरे पैमानों में, हो शामिल पहले खुद ही, तु अपने दीवानों में! जिक्र हो तेरा अब, और कई अफ़सानों में, बिक रही है जो किताबें नयी-नयी दुकानों में! ऐसे भी मोड़ गुज़रेंगे, जो कहेंगे काफ़िर है याद रहे फ़क्त इतना, तू एक मुसाफ़िर है! उम्मीद कोई यतीम नही,कहीं सबके ठिकाने हैं, अब नयी सुबहों को तेरी, नये कई आशियाने हैं!

इमरोज़

बड़े कायदे से एक कायदा तोड़ दिया, दुनिया को सरेआम गुमराह छोड़ दिया! कहें वो जो कहते हैं, यही होता आया है, समाज़ सदियों से यूँ ही सोता आया है! मर्ज़ी थी सो हमने कर दिया मन-माफ़िक पहले भी ये इल्ज़ाम अपने सर आया है! दुनिया हमारे कदमों में कभी भी नहीं थी, कुछ अपनों से आज़ ये पैगाम आया है!  बड़ी बेमुरव्वत निकली मोहब्बत अपनों की,  कहाँ  दुआओं में आज अपना नाम आया है? मुश्किलों में कब हमने अपना साथ छोड़ा ये अपनापन ही अपने बड़े काम आया है, कोई भी अकेला नहीं है इस सफ़र में, फ़िर क्यों रास्तों पर इल्ज़ाम आया है?  अरसे से एक दुआ थी जो कबूल हो गयी,  क्यों किसी ज़ुबान पर काफ़िर नाम आया है!  इल्ज़ाम लगते हैं बहक गये हैं हम बेखुदी में युँ तो आज ही हाथों मे अपने जाम आया है! (इमरोज़ ने सितम्बर २००० में‌ हैदराबाद ऑल्ड़ सिटी में एक अंतराष्ट्ईय संस्था प्ले फ़ॉर पीस में एक वॉल्टीयर का काम शुरु किया था, 16 साल की उमर में, आज वो अमेरिका में प्ले फ़ॉर पीस की ऑपरेशन मैनेजर हैं और कोस्टारिका की UN पीस युनिवर्सिटी से Masters कर रही हैं!)

बातों बातों में.....

कहीं कुछ रोकता है क्यों.... खुला दिलो-दिमाग हो तो दरवाज़े दीवार नहीं होते, आपस की बात है, वरना ये आसार नहीं होते  देखने और होने के बीच के फ़ांसले .... नज़र आँखों में नहीं यकीन में होती है,  एक हंसी से भी जिंदगी हसीन होती है! सब एक नाव में सवार हैं . . . आपको हमारे माथे की पेशानियां नहीं दिखती, जमीं रहने दो, वरना लब्जों में जान नहीं दिखती सफ़र आपके भी हैं और अपने भी.... गुजरते हुए लम्हे हैं गुमराह मत हो,  मुश्किलें मील का पत्थर हों, सफ़र न हों! तक्दीर फ़क्त एक रास्ता है,  मंज़िल नहीं होती, मुश्किल, मुसाफ़िर न हो, तो वो मुश्किल नहीं होती! मुसाफ़िर होना फ़कीरी काम है, सफ़र में यही बस एक नाम है!.... हमारा दुनिया में होना ही एक सफ़र होता है,  कौन सी राह से गुज़रेंगे, ये अपनी नज़र होता है! मुसाफ़िर रहना हो तो फ़कीरी अंदाज़ हों, कटोरा हम देंगे मुबारक आपकी आवाज़ हो! हाथ फ़ैला दिये तो कटोरा तैयार है,  दिखती सामने होगी, पर जहन में है, वो जो दीवार है, सच करवट बदलते हैं.... दुविधा भी सुविधा का दुसरा नाम है, वो बहकना क्या जो हाथों मे जाम है? मोड़...

छलकते लम्हे!

युंही कोई बात नहीं होती, युंही कोई साथ नहीं होता फ़क्त ईरादे नेक रखिये, हर लम्हा हालात नहीं होता! वही पुरानी बात है, वही काली रात है, लम्हों का साथ है, शब्दों की बारात है!  दो पल गुम हुए, दुनिया घुम गयी किस ओर, डोर पकड़े बैठे थे, हाथ रह गयी एक छोर!  लम्हों का असर हो, लम्हों का कहर हो, ज़ुबाँ बयाँ करती है, जो लम्हों को नज़र हो!   खोये हैं देर से, या लम्हे युं ही सोये हैं कैसे काटें अकेले जब साथ बोये हैं!  क्या आप अपने लम्हों के सच्चे हैं,  या इस हिसाब में थोडे कच्चे हैं, लुड़क रहे, दिल ने जो दिये गच्चे हैं, क्या कीजे इश्क़ में हम बच्चे हैं!