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जुलाई, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मंथन!

मुड़ कर अपनी गुजरी हुई सोच को देखा तो क्या देखा? बेडिओं में बंधा घिसटता हुआ "मैं" देखा मुस्कराता,इठलाता, सर ऊँचा गर्माता, भरमाता जैसे कोई गुमान ना हो, सर पर कोई सामान न हो! क्या मैं आज़ाद हूँ? या अपनी आजाद सोच का गुलाम, कितना आसान है खुद पर यकीं कर लेना पर सवाल सर उठा रहे हैं! डरूं या यकीन करूँ, मेरे हैं मेरे पास आ रहे हैं कैसे बतलाऊं मैं कहाँ जा रहा हूँ कहाँ हूँ ये तो समझ लूँ! आसमाँ तो कायम रहेंगे पैरों तले की जमीं को परख लूँ मंजिलों की क्या तलाश एक दिन ये रास्ता मुकाम होगा भटकना जायज़ है!और (ओशो के शब्दों पर गौर करते करते...)

प्यार, कहाँ और मैं

कहाँ? जहाँ सर उठाने को कोई डर न हो, समझ पर कोई दर न हो, जहाँ दुनिया को टुकड़ों में बांटता मेरा घर न हो, मेरी आवाज़ सच्चाई के समुंदरी तल से निकले और दिमाग इस सच पर आगे चल निकले सोचने और करने के सतत्त बड़ते धरातल पर क्या मैं यहाँ हूँ? कहाँ आयूँ जहाँ डर न हो गलतियां करने का मेरी हंसी पर असर न हो सीखना सजा न हो जहाँ बड़े मुझमे संभावनाएँ देखें समस्याएँ नहीं आप वहां आइये मैं जरुर मिलूंगी प्यार की सोच दिल में झांक के देखा, जरा नीचे   उसके ऊपर सोच की कवायत थी   दिल में ही जान है, और शब्द सिर्फ मेहमान  घर होंगे? कब तक, कितने? ज्यादा नहीं हो गए? कितनी आग, आग गहन करोगे   जलोगे या रौशनी करोगे अन्तरंग प्यार की?   सारे विचारों को हवा करते! (रूमी के विचारों के हिंदी समीकरण)

सफर के नुस्खे

उम्मीद को आसमाँ बनाने से क्या होगा यकीन को जमीं कीजे! कल क्यों पेशानी पर लिखा   है आज सफ़र को हसीं कीजे!! जिन्दगी अपने हाथों में , नज़र आती है उम्मीद , सारी बातों में नज़र आती है सच्चाई , हंसती खेलती दिखती है इबादत , इरादों में नज़र आती है! अब   आपकी   अपने दिल पर नज़र होगी किसकी   आहट   पर धड़कन   असर होगी पास   आयेंगे तो पूरी कसर   होगी गुजरते लम्हों की रहगुजर होगी ये साथ मिल कर बनाया है , दीवारें अपनी हमसाया हैं काम बहुत हैं कब तक आगोश में बैठें बड़ी जतन से ये घोंसला बनाया है रास्ते में आये तो ख्वाबों से भी मिल लेंगे   फुर्सत में आये तो यादों से भी मिल लेंगे बादलों की छांव हमसफ़र नहीं होती घड़ी दो घड़ी उस से भी मिल लेंगे दूर के ढोल सुनने होते हैं ,  पास के बजाने होते हैं ऐसे मौसम आयें तो ,  कैसे बहाने होते हैं ! मासूम इरादों के बादल भी दीवाने होते हैं कौन कहता है की बचपन के ज़माने होते हैं .... सोचो तो दीवार है देखो तो दीदार   सोचो तो इज़हार है देखो तो प्यार

काबिले आसमान!

रंग बिखरे हैं जमीं पर इकट्ठा का कीजे सुन्दर को सपनों  की सजा का दीजे पंख सबके हैं एक दिन उड़ जायेंगे जमीं अपनी होगी तभी आसमाँ अपनाएंगे हुनर सब को है बस यकीन दे दीजे हंसी खो जाये इतनी कन्धों को उम्मीद का दीजे क्यों नहीं हो सकते मंजिलों से आजाद उठते क़दमों को लकीर का दीजे सब के अपने समंदर हैं तर जाएंगे, आपके कुँए में बेवजह फंस जाएंगे, उम्मीदों के जाल गला घोंट देंगे, अपनी नज़रो से आप समझ पाएंगे???? दुनिया चलती है क्योंकि मधुमक्खी उड़ती है, अपने आइनों को ज़रा बड़ा कर लीजे, हमारा होना मुर्गी-अंडे का सवाल नहीं है, बस अपने पैरों पर खड़े हो लीजे!

भगवान की पुण्यतिथि पर!

कुर्सी है आराम नहीं है ऐसे अब सामान नहीं हैं पहले बनते थे तारीख, अब मुर्दों में जान नहीं है गरदन ऊँची है अब भी, पर अब, वो शान नहीं है नाच इशारों का हरसू, बस कठपुतली नाम नहीं है! आवाजें अब भी मौजूद है, सुनने वाले कान नहीं हैं आइना सामने है पर खुद से पहचान नहीं है!  चलता है हर कोई, पर क़दमों के निशान नहीं हैं मुड कर देखें रस्तों को अब ऐसे अनजान नहीं हैं ! इबादत तो करते हैं, पर अब वो ईमान नहीं है, पलक झपकती चोरी से, सामने भगवान नहीं है? भगवानों के "बड़े" धंधे होते हैं, यकीं से कि भक्त अंधे होते हैं, कहीं Shरी , कहीं बाबा शुरु होते हैं कई  नामों के यहां गुरु होते हैं! साथ है अब भी हर कोई, पर हाथों में जाम नहीं है जाना है सबको एक दिन, पर कोई मेहमान नहीं है अपने प्रभुत्व पर यकीन है , या ये खबर किसी को नहीं है स्वर्ग पधारे /सिधारे हैं प्रभू ,अब ये उनकी जमीं नहीं है !

दाखिले!

निकले हैं सफर को झोली भर के चल मुमकिन है सेहरा में कोई प्यास मिले ! मुतमईन है सब अपनी जोड़ तोड़ में अपने ही हाथों सब को वनवास मिले अपने साथ के लिये तन्हाई नहीं लगती खो जाये भीड़ में वो एहसास मिले जिंदगी भर साथ, सिर्फ जिंदगी देती है उतना ही दीजिए जितना रास मिले दुआओं की क्या जरुरत जो आपका साथ मिले  उम्मीद चाँद की और पूरी कायनात मिले  दिलोदिमाग मिले तो इस अंदाज़ से मिले एक कतरा अश्क का एक संजीदा बयां मिले जिधर से गुजरे एक कारवां बना चले   आज ये रास्ता उदास मिले

तीन करवटें

कुछ नहीं न कोई आवाज़ न कोई अंदाज़ ख़ामोशी भी उदास ऐसा तो नहीं की तुम हो नहीं काम की एक लिस्ट है, कागज बिखरे हैं और बातें अधूरी रातें गुजर रही हैं दिन पलक झपकते मुकर जाते हैं चल रहे हैं पर खबर नहीं दूर जा रहे हैं या पहुँच रहे हैं हिसाब में कमजोर है या हम नज़र ही नहीं आते अकेले कभी गिनतियों में नहीं आते चहेरा देखते हैं या तस्वीर क्यों नहीं है थोडा और करीब? क़दमों के निशाँ मंजिल नहीं हैं गुजरे हैं हम इस से कहाँ इंकार हैं हम उमींदों के फकीर हैं गुजरे लम्हों से आजाद कोशिश तो है आवाज़ आप तक पहुँचती होगी दें तो भला न दे तो क्या खला घूम के फिर आयेंगे खोइये मत हम उम्मीद के फकीर हैं दोनो की पीठ है पर बेरुखी नहीं, न तल्खी, न बेपरवाई,  न रात दिन की भरपाई है,  न दिन रात की कमाई है,  ये बेफ़िकरी के मकाम,  मुसाफ़िरी के अंजाम,  सफ़र में हैं,  हम हमसफ़र हैं!

मैं और तुम

मैं क्या महसूस कर रहा हूँ  ये महसूस करने की कोशिश सोच रहा हूँ मगर कोई ख्याल नहीं करता तो हूँ बहुत कुछ पर तेरे सवाल नहीं वक़्त वापस नहीं आता कुछ शुरू, कुछ खत्म नहीं होता उस दर्द का क्या करें जिसका जख्म नहीं होता न उम्मीद टूटी है  न एहसास छूटा है न कोई दूरी है फिर भी हर पल       लम्हों की प्यास है मैं तो मुस्कराता रहता हूँ फिर क्या है जो उदास है खाली प्याले...अधूरे निवाले...बिस्तर की सिलवट...  मैं और तुम सच कोई परिभाषा नहीं कोई अतीत नहीं न कोई कोशिश कुछ होने की करने की मैं और तुम सोच से परे गहरे समय से मुक्त मैं कहीं खत्म तुम कहाँ शुरू इंतज़ार अधूरेपन की सम्पूर्णता मैं कहाँ शुरू तुम कहाँ खत्म इस क्षण इस पल सच विचारमुक्त मैं और तुम  

?

खूबसूरती क्या है? क्या है .... दिल और दिमाग, जब एक होकर  किसी मधुर सच्चाई से मिलते हैं  आराम से निश्चिन्त होकर, बिना किसी रूकावट   उस पल की... खूबसूरती का एहसास क्या है ? खूबसूरती! इसके मायने जिंदगी को लाज़मी हैं पर क्या हम, इस खूबसूरत एहसास की तरफ जीवंत हैं ? या फिर अपने विचारों की सुरंग में ही, अपने जीवन का अंत है! नदी, तालाब, पहाड़ों से बहता, हरियाली का सैलाब, इस खूबसूरती के बीच रहकर, हम  अगर धुप छांव नहीं खेल रहे तो क्या हम जी रहे हैं ? (जिद्दू कृष्णमूर्ति के आलेखों से अनुरचित)

अधूरापन

मुझे मोक्ष का मोह नहीं न ही सत्य की लालसा है अपने अहंकार से कोई भय नहीं न मुझे मंदिरों की कैद पसंद है न ही अपनी बुद्धि का प्रभुत्व मैं अपने अधूरेपन का उपासक हूँ मैं अपनी गलतिओं से नहीं सीखता न ही अपनी भूलों से पछताता हूँ न मुझे इतिहास की गुलामी पसंद है और न ही भविष्य पर सियासत मैं लम्हों का हिसाब नहीं रखता उम्र के साथ घटना बढना मेरा सामर्थ नहीं मैं अपनी बातों का साक्षी नहीं आज मैं हूँ, कल मैं भी (may be) नहीं मैं अपने अधूरेपन का उपासक हूँ मैं प्रारंभ ही नहीं हुआ अंततः क्या? अनंत से प्यार है अंत से नहीं डरता अपने से प्यार नहीं है पर इंकार भी नहीं चल रहा हूँ पर पहुँचने के लिये नहीं ये अधूरेपन का सफर है अधूरा हूँ नदी बन बहता हूँ कवि हूँ ? इसलिए कहता हूँ मैं अधूरेपन का उपासक हूँ.

और एक समीकरण

पानी को कभी अहंकार करते देखा है? बस बहता है समंदर से एक होने की फ़िराक में रहता है न सूखने से डरता है न बरसने से इंसान फिर भी बाज़ नहीं आता तरसने से जमीं नहीं डरती टूटने बिखरने से मीलों खिसकने से, भसकने से, धसकने से हवा होती है पानी होती है न कोई किसी के खिलाफ है न किसी के साथ हाथों हाथ कारोबार चलता है न किसी की नियत डोलती है न किसी का दिल मचलता है सदिओं से समीकरण अपनी रेखाओं से एक है न कोई आकांक्षा न अभिलाषा इंसान अब भी जीता मरता है कोई आश्चर्य की बात नहीं की हम सबसे नए प्राणी है परिपक्व जमीं पर अभी अभी चलना सीखा है बहते बहते शायद कुछ वक़्त लगे

समीकरण/MATRIX

हर लम्हा सिखाता है इज़हार क्या हो जरा सुनिए दिल की आवाज़ क्या हो कहने को बहुत करने को बहुत दुनिया का शोर, डरने को बहुत कहता है प्यार मरने को बहुत समीकरण नहीं दिखता, तो जंजीर क्या नज़र आएंगी जिंदगी हर लम्हा भरमायेगी चलने से पहले क़दमों के निशाँ नज़र आते हैं और सोचते हैं अपने रास्ते जाते हैं, वक़्त आयेगा नहीं, आप को आना होगा प्यार वो है जो जमीं बने आसमान बने निशाँ नहीं, परछाई नहीं एक है सच कहने करने की बात नहीं जुडना पड़ता है पंख नहीं होंगे यकीं से उड़ना पड़ता है

खोना या होना ?

कुछ फरक नहीं पड़ता अगर मेरे होने का क्या असर होगा मेरे खोने का पर कुछ इतना आसान नहीं काट रहे हैं खुद को वक़्त कहाँ अब बोने का रास्ते पर चल रहे हैं पर मुसाफिर कहाँ हैं? क़ैद अपनी, अपना जहाँ है! मुड कर देखा, क़दमों के निशां हैं, कैसे मिटायेंगे गुजरे भी तो नामोनिशां हो जायेंगे खुद को खोकर, ढूँढना है....