बस बहता है
समंदर से एक होने की फ़िराक में रहता है
न सूखने से डरता है न बरसने से
इंसान फिर भी बाज़ नहीं आता तरसने से
जमीं नहीं डरती टूटने बिखरने से
मीलों खिसकने से, भसकने से, धसकने से
हवा होती है पानी होती है
न कोई किसी के खिलाफ है
न किसी के साथ
हाथों हाथ कारोबार चलता है
न किसी की नियत डोलती है
न किसी का दिल मचलता है
सदिओं से
समीकरण अपनी रेखाओं से एक है
न कोई आकांक्षा न अभिलाषा
इंसान
अब भी जीता मरता है
कोई आश्चर्य की बात नहीं
की हम सबसे नए प्राणी है
परिपक्व जमीं पर
अभी अभी चलना सीखा है
बहते बहते शायद कुछ वक़्त लगे
आप जो भी हैं...मुझे आपकी रचना बहुत पसंद आई.
जवाब देंहटाएंआप की रचना 9 जुलाई के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
http://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
बहुत बढ़िया रचना.
जवाब देंहटाएंवक्त मिले इंसान को, खुद से अलग , खुद से जुदा ,
जवाब देंहटाएंजुडे वो खुद से इस तरह की एक हो कर जी सके..