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अमृता प्रीतम

अपनी ही खामोश समझ को नकार है
मर्द को अगर औरत की ताकत से इंकार है!

कोई लफ़्ज़ ज़ब ज़ुबां तलक आते हैं,
खत्म हो जाते हैं!
अगर बचा लिया किसी ने,
तो एक कागज़ उतरते है, 
और वहीं ढेर हो जाते हैं!

रूह पर कुर्बान होने पेश, 
लबों से लरज़ते हमारे नाम,
एक मुक्कदस आवाज़ बनते हैं! (मुक्कदस - Sacred)

ज़रा दूरतलक देखिये,
सच्चाई और झूठ के बीच

'जगह' है! 
ज़रा खाली!

दर्द था, खामोशी से मेंने
एक कश सिगरेट के माफ़ि खींच लिया,
चंद शेर बचे थे, कुछ कलाम,
जो छिटक दिये मेंने राख करके!

एक बार एक हीर के अश्क,

और 'हीर-रांझा' तुम्हारे,
आज हज़ार आँखे रोती है, 
बुलाती हूँ तुम्हें,
वारिस शाह!
(https://en.wikipedia.org/wiki/Ajj_aakhaan_Waris_Shah_nu)

कोशिश है कि सुरज किरण बन
तुम्हारे रंगों से लिपट जाउं,
और जो तस्वीर तुम करते हो,
उस में सिमट जाउं!

खाक होने के बाद,
ज़रा ज़र्रों को समेट
एक रेशा बुन कर, बन कर,
फ़िर उस छोर तुम्हें मिलुंगी!


फ़िर तुम्हारी याद, आई
फ़िर आग मेरे ओंठ आई,
इश्क़ ज़हर का प्याला सही,
मुझे फ़िर भर प्याला ही!

बहुत अफ़साने हैं,
जो कागज़ नहीं उतरे,
वो दर्ज़ हैं, जिस्म और
ज़हन में 'औरत' के!



(http://www.vagabomb.com/Amrita-Pritam-Quotes-On-Everything-That-Matters/
इस वेबसाईट पर अमृता प्रीतम के ये अल्फ़ाज़ पड़े, उसी का तरजुमा है)

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