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मशकूर मुसाफ़िर

इंसान होने का सफ़र, और उसका असर हर ज़ज्ब करती नज़र से हर मुस्कराहट से खुले दिल और फ़ैली हुई बाँहों से खेल है ये बच्चों का कहने को कुछ नहीं करना ही उनका कहना है, कुछ उम्मीद से मेल खायेंगे हमारे इरादे और हरकतें, ओ' इस के लिए हम मशकूर हैं! We travel to become human and human we become with every glance with every smile with open heart  and welcome arms It is indeed a child’s play for they need not say they show the way believing we may Unite in our intention and action, for that we are grateful

पुकार लो हम अनेक हैं!

अपने भी हैं और इंसान भी, पहचान इतनी काफ़ी है, हाथ बढ़ाने को, कदम मिलाने को, पर ऐसा कहाँ होता है, फिर कहते हो ये देश है, शैतान का एक भेष है, दर्द दर्द नहीं होता, आँसू  आँसू नहीं, पस्त है सब इंसानियत, तराजुओं के सामने! 'अपने' ख़ास होते हैं, दबे कुचले टूटे, इंसानियत की दरारों से लीक हुए, चमत्कार के प्राण नहीं छूटे, पूरे बदन पर शिकन लिए, हम सिर्फ आज नहीं हैं सदियों का कच्चा चिट्ठा हैं, हिम्मत किसमें जो पढ़ ले? "जय भीम" ये पुकार है, के चीख, अज़ान है के कोई पहचान? चाय पर बात है, या बिन शर्त साथ है? एक टॉर्च है, बैटरी की तलाश में, जुड़िए, आप रोशनी हैं! "जय भीम" ये दर्द भी है, खुशी भी, आँसू भी, उल्लास भी, ये एक सपना है, एक कौम का, एक कौम जो इंसान होती, अगर कोई जात, कोई रंग से मानवता हैवान न होती! "जय भीम" एक सवाल है, पूछें खुद से? अपनी बुनियाद से? अपनी हैसियत से? अपनी किस्मत से? अपनी अस्मत से? आपने कमाई है? या हाथों हाथ आई है? जय भारत बोल के देखिए? दो चार आवाज़ साथ देंगी, भीड़ में ज़ज्बात देंगी, दो पल और फिर अप...

#MeToo

अपने लिखें #MeToo तो दर्द होता है, कुछ की आँखे खुली हैं, भट्टा सी? कहाँ रहते हैं मर्द दुनिया के? अपनों के साथ रहते रहते भूल जाते हैं, सब, अपने गरेबां को, उन हाथों को जो मचलते हैं, थे? जब आप मौका थे, और आपके हाथ, कंधे, कोहनी चौका? भीड़ में, आपकी आँखें झांक रही थीं, उपर से, और ताक रही थी, शर्म को बेशर्मी से, क्या करें फ़ुर्सत ही नहीं मिलती, ज़ेब की गरमी से, अपने हाथ कब तक होंगे जगन्नाथ? रगड़ दो कहीं हाथ, हो गयी पूरी 'मन की बात' और खुजली भी कम, अगर आप सचमुच के, दिल के दर्द वाले मर्द हैं, तो लिखिए #MeToo अगर आप के भी हाथ कभी सटे हैं, भीड में आप भी कभी, जाने-अंजाने एक धक्के में बहे हैं, और नर्म-मुलायम कुछ तो छुए हैं? लिखिए #MeToo अगर, आपके भी ऐसे जिगरी यार हैं, जिनके सड़कछांप प्यार हैं, जिनके हाथ की सफ़ाई के किस्से मशहूर हैं, उनकी हिम्मत की आप दाद देते हैं, और थोड़ा शर्माकर उनसे वो तस्वीरों वाली किताब उधार लेते हैं? चिंता नहीं होती आपको, क्योंकि आपकी बहन उनकी भी बहन है! लिखिए #MeToo अगर आपने हज़ारों बार, छेड़छाड़, एसिड, दबोचने, नोंचने, जबरन पकड़ने, मसलने, बलात्कार की खबरें पड़ी हैं, ...

मत करवा चौथ!

कैसे मर्द होंगे ...ना! अपनी उमर को लंबी करने को औरत को भूखा करते हैं, बाज़ार में मुँह मारते हैं, और घर उनको प्यासा रखते हैं? गली के कुत्ते, चारदीवार के अंदर हुंकार भरते हैं, कस के दो मारते हैं, गुस्सा है तो क्या प्यार भी करते हैं! कैसे हम फ़्यूचर तैयार करते हैं? कैसा? बराबरी से इंकार है? बेटी से प्यार है पर उसकी मर्ज़ी बेकार है, होन्र किलिंग हमारा सांस्कृतिक व्यव्हार है?

करवा चौथ!

दुनिया में औरतें कम हैं, और वो मरती भी जलदी हैं? औरत में ताकत कम होती है, कम उम्र मे लड़कियाँ ज्यादा मरती हैं, फ़िर भी वो ही भूखी प्यासी हैं, लंबी आयू वालों के लिए उपवासी हैं? इससे क्या निष्कर्ष निकालें ? औरत मूरख है? नितांत!निसंदेह! निश्चित्त! और मर्द? कमीना? गैर-जिम्मेदार?  असंवेदनशील? तंग सोच? डरपोक? लालची? और चुँकि औरत मूरख है वो या मान बैठी है कि किस्मत में यही लिखा है? इनसे तो होगा नहीं, मुझे ही कुछ करना होगा! उनकी उम्र लंबी हो या नहीं, मुझे शायद इस नरक से जळी छुट्टी मिले! इल्लत कटे!

करवा...कैसे नहीं करबा?

शान है, अभिमान है, इतिहास गौरव और सम्प्रदाय महान है? औरत जननी भी है, और वही बदनाम भी, सीता, राम से महान है, वरना गले न उतरता पान है, द्रोपदी को पाँच से आंच नहीं, सौ से उसकी जाँच है? मतलब जब तक घर की बात है औरत, गद्दे के उपर की बस एक चादर है, पर घर के बाहर हाथ मत लगाना, गुस्सा है या झूठे ज़ज्बात हैं? जयललिता, हो माया हो, या राबरी, सब पर औरत होने का तंज है गंजे, तोंदू, छप्पनी, व्यसनी, मर्दों का कुछ नहीं, सब को भरोसा है, क्रवाचौथ की दुआ पे नहीं, करवाचौथ की सत्ता पर, कि ये एक निशानी है, दुनिया वही पुरानी है, तरक्की, आज़ादी, बराबरी ये बात सब बेमानी है! आखिर झुक कर पैरों आनी है, "अपनी मर्ज़ी से", करती हैं मर्ज़ी के दर्ज़ी कहते हैं! वोही मर्ज़ी, जो उन्हें जलाती है? मारती फ़िर फ़ुसलाती है? सड़क पर बेचारा करती है? और समाज मे लाचारा! गर्भ में नागवारा करती है? शादी के बाद जिसकी 'न' का वूज़ूद नहीं, उसकी "हां" क्या है? मजबूरी गवाह नहीं है, जीहुज़ूरी करिये चाँद के ज़रिये हर पतिता को पति मुबारक हों!

मारें या बचाएं?

सुना है, मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है, फिर क्यों किसी को जलाने सारा जमाना खड़ा होता है? बुराई पर अच्छाई की जीत? या अपने धर्म, जाति की प्रीत? कभी रावण, कभी पहलू, कभी रोहित, कभी महिषासुर कभी डेल्टा, कभी सुपर्णखा, कभी चुड़ैल, कभी कलमुँही! जिसकी ताकत, उसका सही, दौर कोई हो कहानी वही? शोर, धमाका, आतिश, धुआँ, धुंधला सच, अंधा कुआँ, पहले राम, अब श्री, देव, आसा, रहीम सदगुरु, हो जा शुरू नीम हक़ीम, सब नामचीन! सब मुश्किलों का हल, हर मर्ज के दवा, पालतू ...., खरीदे गवाह, आप क्या यकीन करते हैं? क्या आपके प्रश्न भी चढ़ावा हैं, आपकी भी कोई साध्वी, कोई बाबा हैं? आपके विकल्प, आपके प्रश्न, क्या लंका दहन हैं? आपकी सोच आपके माथे के साथ टिकी है? किसी मंदिर की ड्यौढ़ी पर लाइन में खड़ी है? सवाल खत्म सिर्फ शिकायत है? क्या आपकी मेहनत को मन्नत की आदत है? 101, 1001, सोने का मुकूट, या पानी चढ़ा, आपकी औकात से थोड़ा बड़ा? क्योंकि भक्ति सबूत मांगती है? सोई है अंतरात्मा, देखें कब जागती है?

क्या बात हुई?

कल तो जैसे रात ही नहीं हुई, आपकी हमारी जो बात नहीं हुई! बात करके बोले कि बात नहीं हुई, क्या बोलें, ये तो कोई बात नहीं हुई! ख़ामोश थे दोनों क्या बात करें, पर कैसे कह दें की बात नहीं हुई! सुनना था उनको सो ख़ामोश थे, शिकायत, 'ये तो कोई बात न हुई'! नज़रें बोलती हैं, अंदाज़ बोलते हैं, कौन कहता है कि बात  नहीं हुई! कहने सुनने को कुछ नहीं रहा, कौन बताए ऐसी क्या बात हुई? आपकी हमारी जो मुलाक़ात नहीं हुई, क्या कोई बात है? कोई बात नहीं हुई! भीड़ बन गया है हर कोई हर जग़ह राय अलग है सो कोई बात नहीं हुई! "मन की बात" अब सियासत है, बड़े बेमन से मन की बात हुई!

चट हट फट छपाक - वाराणसी से आवाज़!

शब्दकोश - चट - झापड़; हट - लात; खट- लात, झापड़, मुक्का;  छपाक - एसिड आपके चहरे पर आओ बेटी आओ, तुम्हें भारत सिखाते हैं, चट! लालची मन = लछमन रेखा के पीछे पाँव, अपने कुर्ते हमारे हाथ से दूर रखो राम भी हम रावण भी हम चट! समझ रही हो न? नहीं? चट! तुम ही सीता भी, तुम्हीं शूपर्णखा, क्यों आवाज़ उठाई खामखाँ? चट! तुम्ही 44 %, पत्नी, हर दो मिनिट तुम्हारी छटनी चट! आओ बहन आओ! तुम्हें भारत बताते हैं, छपाक! ये हिम्मत तुम्हारी? बेचारी रहो, बेचारी! छपाक! तुम बोलती हो? शर्म कहाँ गयी? हिम्मत कैसे आ गई? छपाक! अरे, न करती हो? सीता को शूपर्णखा किया? ये लछमन, क्षमा, ये लक्षण ठीक नहीं! छपाक! आओ मां, बहन, बेटी तुम्हें भारत लठियाते हैं, चट, हट, खट, छपाक! वाराणसी, बुरा नसीब! यहाँ लंका भी है और कुल पतित रावण भी चट, हट, खट, छपाक! प्रिये तुमने अपने पापों का घड़ा भरा चट होस्टल के बाहर 6 बजे के बाद चट आवाज़ ऊंची खट शिकायत, शि का य त हट विरोध, मांगे, धरना, राम राम राम चट हट खट छपाक उम्मीद है अब आप औकात में रहेंगी, जात में रहेंगी दाल भात में रहेंगी आँख नीची होगी,...

कारवां की तन्हाई!

कारवां कितने मासूम सफर मोहताज़ हैं,   हिफाज़त के कैसे देखेंगे अंजान ,  आँखों पर पर्दों कि आदत के ! गुलामी के दौर हैं चलो यही जश्न करें , सुनने को कान नहीं हैं, क्या प्रश्न करें? कवायत जारी है , दो कदम चले चलो , ताक में रखो सोच , हाथ बस मले चलो ! लेकर काँरवां चले थे , रह गयी बस रहगुज़र , कसर साथ में रह गयी ,  या साथ का ये असर ! तन्हाई सवाल बचपन के लिये सफ़र करते हैं , कुछ लोग ऐसे हैं ता - उम्र असर करते हैं ! किसको माफ़ करें , कहां मलहम लगायें , नस्ल कौन सी हो , फ़सल कहां उगायें ? जामा पहनते हैं दिखावट का ,  खुद ही खुद को मंजुर नहीं हैं , इश्क़ तो तमाम करते है ,  गोया मोहब्बत का शऊर नही है ! आखिर कब तक हमें इंसां होने का फ़कर होगा , हरकतों पर झुके सर , कब ऐसा जिगर होगा ?

सुबह की दावत!

आहिस्ता आहिस्ता सुबह जागती है, क्या जल्दी, क्यों जिंदगी भगाती है? सुबह खिली है खिलखिला रही है, खुश रहने को आपको दावत है! सूरज खिलता है या की दिन पिघलता है, जलता है इरादा या की हाथ मलता है! सुबह के सच रोज़ बदलते हैं, आप किस रस्ते चलते हैं एक अंगड़ाई और एक सुबह, फांसला किसको कहते हैं? रोशनी उगती है अंधेरों में तो सुबह होती है, जाहिर है हर बात कि खास कोई वज़ह होती है! सुबह से सब के अपने अपने रिश्ते हैं, कुछ तनहा है, कुछ जलते कुछ खिलते हैं! एक सुबह आसमां में है, एक ज़मी पर, गौर कर लीजे आपका गौर किधर है! एक और सुबह सच हो गयी, अब और क्या चाहिए आप को?  अगर ये सुबह आप को मिल जाए, फिर क्यों कोई और अरमान हो? सुबह को शाम कीजे, दिन अपना तमाम कीजे, गुजर रही है ज़िन्दगी मूँह ढक आराम कीजे! हर रोज़ सुबह होती है, हर रोज हम निराश हैं, हर रोज चाँद ज़ाहिर है, फिर क्यों हम उदास हैं! 

आज़ादी के नंग?

आज़ादी का ऐसा नशा के जंज़ीरें नहीं दिखतीं, तस्वीरों से खुश हैं सब, फूटी तकदीरें नहीं दिखतीं! तमाम फ़कीरी मज़हबी लकीरों में सिमटी है, उसूलों की किसी को गऱीबी नहीं दिखती? 60 बच्चे चंद हो गए, ज़हन ऐसे गन्द हो गए? चीख़ रहे हैं सब ख़बरी ऐसे, कि हम अपनी बोलती के बंद हो गए? एक क़ातिल, एक उठाईगीर को रहनुमा किया, क्यों हम इतने अक्लमंद हो गए? अपने ही पड़ोसी पर शक है, क्यों मोहब्बत पर नफऱत के पैबंद हो गए? जो हमराय नहीं होता वो रक़ीब है,  कब से सोच के हम इतने तंग हो गए? ये कैसी आज़ादी आयी,  सब के सब रज़ामंद हो गए? शोर मचाओ, वंदे गाओ, आज़ादी के सब नंग हो गए? ......  बेहरेहाल आज़ादी मुबारक़ हो अगर आप आज़ाद हैं!! #फ्री #आज़ादी #स्वतंत्रता #freedom #independance

गौ-बंधन

आज सारे बछड़े इंतज़ार में हैं, और बछड़ियाँ भी,  गौ माता के दु-पउआँ बेटा-बेटी रक्षाबंधन मनाने आएंगे। मुग़ालता है के अच्छे दिन आएंगे। कब तक प्लास्टिक चाट मुँह मीठा कराएंगे? कब तक गले में पट्टा बंधवाएँगे, कब कलाई में राखी बांधेंगे बंधवाएँगे? वादों से कब मुकरना बंद होगा? कब तक उनके नाम वोटों का धंद होगा? कोई तो भाई जो अक्लमंद होगा? मेरे और मेरी माँ के नाम कब कत्ले-आम बंद होगा? कब प्लास्टिक रीसाइकिलिंग मेरा काम नहीं होगा ? कब में सड़कछांप मवाली नहीं रहूँगी? गोबर और मूत्र से पैसा कमाते हैं? माँ कचरा चर रही है,क्या नहीं जानते हैं? ऐसे भाई-बाप-बेटे किस काम के?

बेटी बचाओ ... बचा सको तो!

ये हमारा भारत है, बेशर्म बेगैरत है, सूरत कैसी भी हो इसकी, कुकर्मी इसकी सीरत है! यही हमारी नीयत है, यही हमारी नीति है, औरत वही जो चुपचाप, हमारी बदसलूकी सहती है! हमें गाय से प्यार है, उसके मुकाबले औरत बेकार है, यही हमारे शास्त्र हैं, यही हमारा संस्कार है। हमें छेड़छाड़ स्वीकार है, गोपियों के वस्त्र हमारे खेल हैं, गले मे सूत्र और नाक पे नकेल है, ये गुस्सा बेकार है, वही हो रहा जो हमें स्वीकार है! http://www.ndtv.com/chandigarh-news/bjp-leader-subhash-baralas-son-vikas-barala-summoned-after-police-watch-cctv-footage-of-stalking-1735246

रिफ़्यूज़ी!

समंदर और साथ सफ़र, लहर साहिल मुक़म्मल, अधूरे किनारे, हर लम्हा बदलते, रुके हैं पर खत्म होने को... लहरें बहती हुई, पर कहाँ जाने को? और साथ, मुसाफ़िर, बिछड़े, भटके, अधर में अटके, न छत सर है, न लम्हे असर हैं, रास्तों को खुद नहीं पता, वो कहाँ जाएंगे, कैसे कहें उनको के ज़िन्दगी सफर है, बेबसी रहगुज़र है?

जज़्बाती ज़मीन

 ज़मीन हिल गयी,  पैरों के नीचे की  सच्चाई बदल गयी,  कुछ लम्हा सही,  रगों की नीयत बदल गयी,  कुछ कह रही थी,  या सबर टूटा कि  बरसों से सह रही थी! जमीन पिघल गयी, ज़ज़्बातों की झड़ी, रह गयी अनकही कोई बात कसर है, या कही नहीं अपनी, बरसों का असर है? हिल गयी, पिघल गयी, आज ज़मीन आसमाँ निगल गई! ये कैसी प्यास थी, या बरसों से दबी आस थी, ओ आज बदहवास थी? ख़ामोशी अच्छी है, सिर्फ़ सुनने को, 'कहने को' खामोश क्यों करिए? जब भी, जो भी, दिल कहता है कहिए! जुड़िए अपनी जमीं से, जज़्बाती रहिए, ज़ज़्बात कहिए!

सर्वे सन्तु भारतीय!

यकीन अलग थे, ज़मीं वही थी, ये किसी की चाल थी, या यही चलन है, अब? मैं, मैं क्यों नहीं रह सकता? सिर्फ इसलिए के आप, आप हो? किसी के बेटे, किसी के बाप हो? या सिर्फ एक क़ातिल तहज़ीब की छाँप हो? राम का नाम हो और, फन फैलाये सांप हो? और आप, और आप, आप भी, शरीफ़ हो, ख़ामोश हो, या गाय का दूध पी मदहोश हो? माँ कसम, क्या नशा है? ये कौनसे दर्द की दवा है? या माहौल है, हवा है? मानना है क्योंकि 'सरकार' ने कहा है? यानी, जो नहीं कहा है, आप आज़ाद हो गए, वहशियत के डर से? या इस यकीन से के ऊपर वाले के दरबार में, पीठ थपथपाई जाएगी, आपकी भी बारी आएगी। "प्रभु, आपका नाम ऊंचा किया, इसने सर नीचा किया, जब भीड़ ने जुनैद का तिया-पाँचा किया! शाबाश पुत्र, तुमने राम का नाम किया, तुम्हें स्वर्ग मिलेगा, 5 स्टार चलेगा!"? "और प्रभु, इन्होंने तो आप की लाज बचा ली, इन्होंने इंसानियत से ज्यादा मान आपका किया, पहलू और अख़लाक़ का काम तमाम किया, पूरे समय इनके ओठों पर एक ही नाम था, जय श्रीराम था, वाह, वाह, इन्हें तो प्रभु अपने वाम पक्ष में स्थान दीजिए, इनको यम का नाम दीजिए" ...

बंजारियत!

आज सुबह की दौड़, बेजोड़, नयी शक्ल हर मोड़, और दौड़ ज़िन्दगी, कोई फुर्रर्रर कोई खिरामां खिरामां, सोचने का वक्त नहीं, किसी को, और कोई मगन है ख्यालों में, कोई सेहत के लिए भागता है, और कोई नेमत को, और काफ़ी अपनी कीमत को, और समंदर दूर से, बारीख़ी से, कुछ नहीं कह रहा, अगर आप सुन पाएँ, तो समझेंगे, सच कुछ नहीं है, बस आपकीं राय है!

घुम्मकडियाँ!

इतिहास का इरादा क्या था? यूँ खड़े होकर, सरचढ़ बोलते, अपनी कहानी कहता है या मुँह चिढ़ा रहा है हमको? तुम ने कौन सा तीर मार लिया? अदना बन कर खड़े हो? हमारे साथ सेल्फ़ी लेते, लोग तुम्हें शायद लाइक करें?

जुनैद की टोपी का कत्ल!

बस एक टोपी ही मुसलमान थी, उसके नीचे तो मैं पूरा इंसान था? क्या देखा आपने के मेरा इंसान तो दिखा नहीं, अपनी इंसानियत भी नज़र नहीं आयी? आपके ज़हन ने कैसी मेरी तस्वीर बनाई? वो आपकी आँखों का सुर्ख रंग, मेरा बिखरा हुआ खून कैसे बन गया? क्या बात हुई आपके दिल और दिमाग में? पहली बार कत्ल किया या, है ये आपके मिज़ाज़ में? आप भीड़ थे या  उस नफ़रत की रीढ़ थे? मैं समझ नहीं पाया यूँ पूछता हूँ? मुझे तो आपका इंसान नज़र आया, मैंने हाथ जोड़ कर ये इरादा फ़रमाया, पर माहौल इतना क्यों गरमाया? क्यों इतनों का इरादा भरमाया? क्या आपने नफ़रत पाली है? इतनी फल-फूल कैसे गयी? ये कैसी आँखों में धूल गयी? और आप कहते हैं आपने हाथ नहीं उठाया? और आवाज़? आपकी खामोशी मासूम थी? या डरी हुई? या अपनी ही नज़रों से गिरी हुई? गलत हो रहा है? आपको एहसास था? क्या ख़ाक था? बस एक आख़िरी सवाल है, मैं तो मुसलमान था फिर, मेरे कत्ल से भी "राम नाम सत्य" हुआ क्या? चलिए आपको आपका सच मुबारक हो!

गुस्सा सवालिए!

मैं उदास हुँ हताश नहीं, गुस्सा पाल नहीं रहा, सवाल रहा हूँ, मैं हाल हूँ या हालात? खबरों में खुद से होतीं नहीं मुलाकात, नफ़रत का हर तरफ़ बवाल, कोई मज़हब जल रहा है, और कोई धर्म जला रहा है! जो ज्यादा है वो भीड़ हैं, जो कम हैं वो कम पड़ रहे हैं! इंसान अब इंसानियत से लड़ रहे हैं! और वातानुकूलित सच वालों को यकीन है, के इस दौर में हम आगे बढ़ रहे हैं!

मजबूर नफ़रत

अपनी जंग के सब मजबूर हैं, सच्चाई के कौन जी-हुज़ूर हैं? गुस्से में इतने के खुद से दूर हैं, कैसी मुल्कीयत के पाकिस्तान ज़रूर है? आवाज़ अलग है तो उसको जला देंगे, कौन इंसान जिसको खून जरूर है? नफ़रत के कितने सब मंज़ूर हैं, क्या कीजे के आदमखोर हुज़ूर हैं! सच छुप जाए यूँ के हम मग़रूर हैं, डरी हुई आवाम को छप्पन जरूर है! इंसान ही इंसान को काफ़ी पड़ेगा, कौन कहता है क़यामत जरूर है? लाज़िम है के खामोशी एक राय है, कुछ तो इशारा हो के नामंजूर है? दूध का रंग सुर्ख नज़र आता है, क्यों रगों में आज इतना सुरूर है? मूरख गिन रहे हैं अपने और उनके, आख़िरकार इंसान को इंसान जरूर है!

महाज़िर!

बस मौजूद हैं, इतना ही वुजूद है, उनका, उनकी छिन गयी सरहदें सारी, बस एक पहचान, महाज़िर इंसानियत तमाम मौज़ूद, फिर भी सिर्फ महाज़िर, हर क़तार में आख़ीर आख़िर क्यों? और अब तमाम हरकतें, दुनिया का ज़मीर, और एक केंप, क्योंकि वो इंसान हैं, आख़िरकार! क्या है पहचान? वो जो बनाती है? आपको, एक मज़हब, एक जात, एक इलाक़ा, एक सोच, और फिर एक से दो, और फिर दो-दो हाथ! कोई बेहतर, कोई बरबाद! पहचान जब हो, क्या इंसान फिर भी है? आप कौन है? मददग़ार? या अपने ज़मीर के गुनहगार आप भी मौजूद हैं!