सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

मई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

करें तो करें क्या?

करें तो क्या करें? शर्म से मुँह छुपाएं या सिर्फ मास्क करें? भूख प्यास करें, उम्मीद आस करे , ठंडी आह भरें या लंबी सांस करें? सरकार निकम्मी है, कब एहसास करें? शिकवा शिकायत करें, या बस इबादत करें, हाथ जोड़ें या हाथ पर हाथ धरें? चीखें, चिल्लाएं,  भिखारी बनें या जनावर, सिर्फ़ लानत धरें? या गुस्से को धार करें? बच गए किसी तरह, किसी तरह गांव पहुंचे, टूटे हौंसले जोड़ें या छूटा जो सामान करें? कुछ समझ नहीं आया, कोई ख़बर नहीं, कोई मदद नहीं, फिर भी हाथ जोड़ें या सवाल सरकार करें मर गए बीच रस्ते, बेआबरू होकर, उनके पीछे छुटे बच्चे, माँ, बाप  करें तो क्या करें? आपका दिलासा, सहानुभूति, चिंता आग में घी का काम करे! आपने अपने आइनों से कब क्या सवाल करे?

श्रमिक स्पेशल!

भूख भूख भूख भूख प्यास प्यास प्यास प्यास ये शेर है, ग़ज़ल का कविता बहुत बड़ी है, आपकी आंखें खुली हों जो आपने पहले ही से पड़ी है! रोटी रोटी रोटी रोटी पानी पानी पानी पानी किसी की थाली में कहीं नाली में, किसी को बस सपने में किसी के खाली पेट की गुहार है किसी की आंखों में गुहार है, देशप्रेम की बात  अब घटिया बेकार है! ख़ाली ख़ाली पेट, सूखे सूखे ओंठ बेबस श्रमिक, प्लेटफॉर्म की लूट, सरकार बस झूठ, फरेब, झूठ बड़े हुए तो क्या हुए, मोदी शाह हुजूर? पैदल भी मजबूर थे, ट्रेन में भी मजबूर? बड़े हुए तो क्या हुए, दिल छोटे हुजूर, श्रमिक ट्रेन में भूखे, खुद अख़रोट खुजूर! लाईन लाईन लाईन लाठी  लाठी  लाठी दोहा छंद चौपाई, पैसा दे मेडिकल,  लंबी लाईन लगाई, पुलिस थाने में अर्ज़ी, लंबी लाईन लगाई मुफ़्त में लाठी खाई पन्द्र्ह दिन में बारी आई,  समेट  पूरे संसार को,  स्टेशन  लंबी लाईन लगाई, सरकार की मेह रबानी,  दो दो पूरी आई सरकार सरकार सरकार, बेकार बेकार बेकार, नीयत ख़राब, पैदल को लाठी, ट्रेन को किराया, दो दिन का सफर घंटों रुका कर पाँच दिन कराया लॉकडाउन  लॉकडाउन  लॉकडाउन ...

ओ माँ!

"जो बोल नहीं सकते क्या उनको सुन सकते हैं? उनके दर्द को अपने दिल में क्या हम गुन सकते हैं?" ओ माँ और कितने कदम चलना है, छोटा बहुत हूँ और कितने दिन पलना है? ओ माँ ओ माँ तेरी आँखों में जो चमक है, तेरे प्यार में जो नमक है, क्यों फीके पड़ते हैं ओ माँ ओ माँ मैं दौड़ तो जाऊं, पर इतने लंबे रास्ते क्यों हैं, मेरे पैर नाचते क्यों हैं कांपते क्यों है ओ माँ ओ मां तेरा कंधा चुभता है, और सूरज भी, मेरे सर भी गठरी दे दे मैं भी बड़ा हो जाऊं ओ मां भूख बोलूं, प्यास बोलूं, क्या तू है उदास बोलूं तू बोले तो मैं बोलूं चुप हूँ अभी ओ मां

अजनबी मुल्क!

अजनबी अपने ही मुल्क में, यूँ हमसे वास्ता कर लिया? सब कट लिए अपने अपने रास्ते, क्यों हमने ये रास्ता कर लिया? हम यकायक सामने आए, उसने पतली गली को रास्ता कर लिया! घर से इतना दूर कैसे हो गए शहर ने ऐसा रिश्ता कर लिया! मजबूर हैं तो मदद मिल गई, मजदूर खस्ता हाल कर दिया! जितने थे यकीं सब टूट गए, मूरख थे सो भरोसा कर लिया! वंदे मातरम जबरन बुलवा के देश भक्त मूरख बना दिया! लाठी पुलिस की बोलती है,  इसने कब सरम कर  लिया? मेहनत बड़ी सस्ती है यहाँ, लंबा घर का रास्ता कर लिया! भूखे रहें बच्चे कि हाथ फ़ैलाएं इज्ज़त यूँ दरबदर कर दिया!  पूछते हैं के वापस आओगे? बेशर्म  शहर सवाल कर लिया! जात धरम सब याद दिलाए, सरकार ये कमाल कर दिया

बदलती पहचानें!

घर बैठे बदल रहे हैं, नये खेल चल रहे हैं, डर अब समझदारी ये चाल चल रहे हैं!  ताकत की दुकान है,  बड़ी लंबी लाईन है!  डर खरीद कर सब अब निकल रहे हैं!! बेबस सुबह है रोशनी के बावज़ूद,  आईने सब पूछते हैं क्या वजूद? प्यार ही बचाएगा, प्यार ही जगाएगा,  दूर हो या पास, प्यार से हो जाएगा! गलत करने को अब गम काफ़ी हैं, बहक जाएं कदम अब तो माफ़ी है? सवाल हैं हर तरफ़ आप पूछना चाहें तो, सवाल ये है कि आपकी नज़र में क्यों नहीं? जो सामने हैं वो सवाल है, हाल नहीं, आप पूछेंगे या माकूल हालात नहीं? अपनों कि परिभाषा इतनी तंग क्यों है? दुसरे को गैर बना दें, ऐसे ढंग क्यों हैं? सोच उड़्ती है या सिकुडती है? जोडती है या बिखराती है? बवज़ह नहीं हैं आसमान, आपकी नज़र कहां जाती है? नफ़रत गर जवाब है तो सवाल क्या था? तंग कर दे नज़रिया वो ख्याल क्या था? वादे ईरादे हैं क्या? या सिर्फ़ बातें हैं? नीयत साफ़ नहीं, एक यही सच बचा है! आईने अलग, तस्वीर अलग, मैं एक कहाँ?  जैसे-तैसे, जहां-तहां, यहां-वहां, कहाँ- ...

यतीम दर्द!

दर्द ये नहीं के बहुत दर्द है, ये कि दुनिया बड़ी बेदर्द है! मदद करने आ गए हैं सब और हर एक के यही दर्द हैं! अपनी ही जमीन से बेघर बुहार कर निकली गर्द हैं! ऐसी बेरुखी रहनुमाओं की, हमारे जिम्मे ही सारे फ़र्ज़ हैं! निकल पड़े मायूस वापस शहर आपके बड़े सर्द हैं! हिम्मत बड़ी काम आई है, मायुसियों के बड़े कर्ज़ हैं! नहीं समेट पाए जलदी में, छुटे शहर में हमारे दर्द हैं!

रास्ते मजदूर

(पैदल मजदूर) किसी का दर्द हमको कभी परेशां ने करे, या खुदा हालात मुझे ऐसा इंसान न करे! लाखों को सडक़ पर लाकर छोड़ दिया, एक के साथ भी ऐसा बुरा अंजाम न करे! सामने आने तक ज़ख़्म ज़ाहिर न हों, सोच मेरी तू आँखों का माजरा न करे! शहर में था तो मेरे बहुत काम आया, (वो)तहज़ीब कहाँ जो उसको पराया न करे! (मेरी प्रिवलेज) मेरे आराम का उसके पसीने से वास्ता कोई? मदद हो मेरी पर मुझको मेहरबाँ न करे! आबाद होने को वापस यहीं बुलाएंगे, अभी ये इल्ज़ाम की शहर को कब्रिस्तान न करे! (कोरोना! बाप रे! तबलीकी, जमात, जिहाद जिहाद) मुश्किल में थे तो हमारे मुसलमां जा बने, नफ़रत को कोई सोच यूँ आसां न करे! अपने ही दर्द को कुर्बान हो गए रास्ते में इस ख़बर को कोई अब पाकिस्तान न करे! (पीएम केयर, कब और कहाँ?) मदद करने को ख़ज़ाने खड़े हो गए, इन दिनों वो क्यों इस तरफ रास्ता न करे? खुदा बनने को मेरे तैयार हैं कितने देखो, शिकायत पुरानी क्यों मुझे मसीहा न करे?

ये कैसी सरकार!

आत्मनिर्भर मजदूर    घर से दूर, अपने पैरों चले हैं, सरकारी फैंसले हैं? ये कैसा सरकारी खेल है, कमजोर है वो फेल है? महंगी बड़ी रेल है, सवालों को जेल है? जाको मारे सरकारी नीती,  राख हवा में होई, कदम कदम चल मरेगा,  चाहे मदद जग होई! लोकतंत्र पर लॉकडाउन, ये कैसी सरकार हुई? मजलूमों से आँख फ़ेरती  क्यों ऐसी नाकार हुई? वादे ईरादे हैं क्या?  या सिर्फ़ बातें हैं? नीयत साफ़ नहीं,  एक यही सच बचा है! मज़बूरी को बिसात पर चाल बनाते हैं, बड़े बेगैरत हैं जो सरकार चलाते हैं! सरकार ने अपने को बचा कर रखा है, खुद से ही बस अच्छे दिन का वादा है!! मूरख सी सरकार है,  कुछ कहना बेकार है! भूखे को इज्ज़त नहीं,  हालात-ए-ज़ार है! चलिए कुछ दान करते हैं, ख़ुद को ज़रा महान करते हैं! सवाल पूछने का वक़्त नहीं, सर-आंखों सरकारी फरमान करते हैं!

टूटती सच्चाईयाँ!

पैर ही छा ले बन गए हैं हवा के निवाले बन गए हैं, जुड़े हाथ प्या ले बने हैं अपने मुल्क के निकाले बने हैं! इस मुल्क में  सब कुछ चलता है! जैसे मजदूर हजार  मील ! घर बैठे  टीवी  पर देखने मिलता है! देश को  बेरहमी  से शमशान कर दिया! भुख और मौत  को मुसलमान  कर दिया! नफ़रत  या द्वेष  कहते हैं,  किसने  कहा देश  कहते हैं! नफ़रत है, द्वेष है,  भेड़िए भेड़ों के भेष  हैं, बाकी सब ठीक,  बड़ा  प्यारा अपना दे श है! कोई सर परस्त नहीं,  मुल्क को यतीम हम, दिलासे खो खले निक ले,  सारे यक़ीन कम! दूरियां बनाए रखना पुरानी परंपरा है, बीमार संस्कृति बड़ी काम आ रही है! बीमारी से मुक्ति मिली,  गरीबी से निज़ात,  जात, धर्म पूछें तो  और बिगड़ जाएगी बात!

सब चंगा सी!

लॉकडाउन चालिसी, दोष तब्लीसी, जिम्मेदारी बदलिसी मूरख पब्लिसी! मुसीबत असलिसी मदद नकलिसी, सब चंगा सी! मजदूर पैदलसी भूखे बेहदसी, नफ़रत निकलिसी, बीमारी चीनीसी, टेस्टिंग कछुए सी, सब चंगा सी! लॉकडाउन चालेसी,  चार बार लागेसी लाख पास आलेसी, सरकार जालीसी, या सोई, आलसी, मूँह में गालीसी, वादे लाखों से नीयत जाली सी सब चंगा सी! हाथ फ़ैले सी झोली खाली सी, भुखी प्यासी.   बेटी रुंआसी, हरसू बदहवासी इतनी उदासी,  सब चंगा सी!

सरकारी सरकार!

सब व्यवस्था सरकारी है, सारा इंतजाम  परदेश से घर लाए जहाज सरकारी थे, और मज़दूर चढ़ नहीं पाए वो बस ट्रेन सरकारी है भूख सरकारी नहीं है, डर और चिंता भी! लोकडाउन सरकारी है, बीमारी सरकारी है!! सड़क सरकारी है, चलने वाले नहीं, मरने वाले रास्ते में अपनी मौत मरे हैं! मरने वालों की लिस्ट सरकारी है, हस्पताल सरकारी है, डॉक्टर नर्स भी, जो शिकायत कर रहे हैं, वो उनकी निज़ी बात है, जिस कमी की बात है, वो कमी सरकारी है, आपसे मतलब? सूचना सरकारी है, जानकारी सरकारी है, उसके अलावा कोई कुछ कहे, तो जेल सरकारी है, पुलिस सरकारी है, उनके डंडे सरकारी हैं, डंडों के निशान आपके, चोट का दर्द आपका, जो गालियां आपने खाईं, वो सिपाही की थीं, पर उनका गुस्सा सरकारी है! कानून सरकारी है, सुप्रीम कोर्ट के जज सरकारी हैं, फैंसले सरकारी हैं, आपको अगर गलत लगें तो, आपकी अपनी राय है, आपकी मन की बात, दो कौड़ी की नहीं, सरकार जो कहे, गलत या सही, वो बात सरकारी है! सरकार माई-बाप है,

ढाई आखर दर्द के!

सुनने वाले बहुत हैं पर किसको कान करें?  ग़रीब हमारे दर्द हैं, कैसे यूँ बरबाद करें?  घर पहुंच जायँगे सोच चलते हैं,  कोई नहीं तो मौत से मिलते हैं!!  दर्द कहाँ हुआ,  आह कहाँ निकली!  सुना कहाँ किस ने,  क्या वजह निकली?  सुनते हैं दर्द अगर तो बहरे कान कीजिए,  कोसों चलते मजलूम आप अंजान कीजिए! रोटियां यतीम हो गयीं भूख के दौर में, दर्द गुमशुदा हैं सारे, तालियों के शोर में!   मौसम बदला है और वक्त ठहरा हुआ है, भूखा है दर्द और बहुत गहरा हुआ है! हर एक कदम दर्द से मुलाकात है, जाने समझें उन्हें कहां ऐसे हालात हैं? सुना है घर बैठे भी आप को दर्द हुआ, बहुत देर टी वी पर हमारा चर्चा हुआ!!

अदने से सच!

ग़रीबी ने चलना शुरू किया रास्ते लुट गई, अकेली थी, बेचारी हो गई, ये कैसी हमको बीमारी हो गई? मजदूर था, घर से दूर था, फ़िर मजबूर हो गया, चलते चलते, खून सारा पानी हो गया, बिन ईद कुर्बानी हो गया! पैर छोटे थे, और रास्ते लंबे हो गए, हड्डियां बोलने लगीं, पैरों के छालों से, पिचके गालों से ये नए खेल! कमजोरी कंधे सवार हो गई, और सारी जमापूंजी, बोझ बन गई, टूटते कंधों में फिर भी उम्मीद है, सपने भी, इज़्ज़त के साथ मरने के! और घर की बात घर में तालाबंद है, सात जनम का संग है, थप्पड़ ओ लात, फ़िर हुई मुलाक़ात नई बोतल के साथ! देशभक्त, अनुशासन युक्त, एक वर्ग, खुश है, इस मुश्किल दौर में सोच मुक्त है, सरकार से कंधा मिलाए, देश चल रहा है, बढ़िया से घर बैठे! रामराज्य!!

क्या बात करें?

कोई भी आह दिल तक पहुंच जाए कैसे वो हालात करें, सुन सकें एक दूसरे को अब ऐसी कोई बात करें! वो दौड़ ही क्यों जिसमें सब पराये हैं, तेज़ रफ़्तार दुनिया और बहुत दूर एक दूसरे से आये हैं, चाल बदलें अपनी और नयी रफ़्तार करें! ....सुन सकें एक दूसरे को अब ऐसी कोई बात करें! बच्चों के हाथ क्यों हाथ से फ़िसलते हैं, जदीद* तकनीक है के मशीनों से संभलते हैं (*आधुनिक) बचपन से बात हो ऐसे कोई व्यवहार करें! ....सुन सकें एक दूसरे को अब ऐसी कोई बात करें! अगर सोच है अलग तो आप पराए हैं, रिश्तों को सब नए मायने आए हैं,  ख़बर दुनिया की ज़हर जिगर के पार करे! .....सुन सकें एक दूसरे को अब ऐसी कोई बात करें! चल रहे हैं मीलों और अब भी बहुत दूर हैं, आप कहते हैं घर बैठे सो मजबूर हैं, कैसे दर्द मजलूमों के हमको चारागर* करें! (*Healer) ....सुन सकें एक दूसरे को अब ऐसी कोई बात करें! क़यामत है दौर और कोई नाखुदा* नहीं, (नाविक) मजबूत कदम हों खोखली दुआ नहीं वो आवाज़ जो सुकून दे, जिसका ऐतबार करें! ....सुन सकें एक दूसरे को अब ऐसी कोई बात करें!

चलें, क्या चलता है?

चल रहे हैं, बस! चल रहे हैं, पैरों पर जो गल रहे हैं, बदल रही है दुनिया संभल रही है दुनिया और हम बिखर रहे हैं, टूट रहे हैं, साथ, हाथ छूट रहे हैं! सरकारी फरमान और डंडे उम्मीद लूट रहे हैं, और गरिमा, इज्ज़त! अपनी ही नज़रों से फिसल रहे हैं, भूख की आग में जल रहे हैं और चल रहे हैं  सबके काम, घर बैठे! फ़ैंसले  रोज़ बदल रहे हैं! मर्ज़ी किस की  चल रही है? और मर्ज़  किस को  चला रहा है? मीलों, कोसों,  पहुँच रहे हैं  कितने? मरते,  क्या ने करते क्या किया ? किसी ने? सरकार? समाज? सभ्यता? सब चल रही है,  दुनिया बदल रही है, या नहीं? क्या बताएं,  हम चल रहे हैं, अभी भी, ज़िंदगी की तरफ़ मिल जाए  शायद,  मौत, अपनी गली- गांव, जहां हमारा  नाम हो, अनजान नहीं, पहचान सड़क किनारे, बेचारे, मजदूर, मजबूर माइग्रेंट, बेघर, बेकार, सरकार, और हम एक संख्या! जिसकी गिनती नहीं!