चल रहे हैं,
बस!
चल रहे हैं,
पैरों पर
जो गल रहे हैं,
बदल रही है दुनिया
संभल रही है दुनिया
और
हम बिखर रहे हैं,
टूट रहे हैं,
साथ, हाथ
छूट रहे हैं!
सरकारी फरमान
और डंडे
उम्मीद लूट रहे हैं,
और गरिमा, इज्ज़त!
अपनी ही नज़रों से
फिसल रहे हैं,
भूख की आग में
जल रहे हैं और
चल रहे हैं
सबके काम,
घर बैठे!
फ़ैंसले रोज़
बदल रहे हैं!
मर्ज़ी किस की
चल रही है?
और मर्ज़
किस को
चला रहा है?
मीलों, कोसों,
पहुँच रहे हैं
कितने?
मरते,
क्या ने करते
क्या किया ?
किसी ने?
सरकार?
समाज?
सभ्यता?
सब चल रही है,
दुनिया बदल रही है,
या नहीं?
क्या बताएं,
हम
चल रहे हैं,
अभी भी,
ज़िंदगी की तरफ़
मिल जाए
शायद,
मौत,
अपनी गली- गांव,
जहां हमारा
नाम हो, अनजान
नहीं, पहचान
सड़क किनारे,
बेचारे,
मजदूर,
मजबूर
माइग्रेंट,
बेघर, बेकार,
सरकार,
और हम
एक संख्या!
जिसकी गिनती नहीं!
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