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भटकते रास्ते

लौट आये अनजान शहर, चंद रोज गुमनाम सहर,
कुल ज़मा फिर चार पहर, भटकेंगे मन, जरा ठहर


चल मुसाफिर बाकि हैं सफर और इधर,
झोली बांधे बांधे ही सराय को घर कर


रास्तों के अज़नबी, और अज़नबी के रास्ते,
सफ़र अधुरे कितने, चंद मुलाकातो के वास्ते!


पलक झपकते ही बुलावा आयेगा,
हाथ आये है लम्हा, उसको ही सुकूं कर!


बड़ी मेहनत से आराम करते हैं, फुर्सत में हम काम करते हैं
नए हालात हैं हर मोड़ पर, हम कहाँ किसी को राम करते हैं


यूँ नहीं कि हम बदलते नहीं, पर अपनी चाल चलते हैं,
रुकने का वक़्त आया तो चलने का जिकर करते हैं


चलते तो सब हैं क्या हर कोई मुसाफिर है?
कदम मिलते हों तो क्या हमसफ़र वाज़िब है?

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