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मंथन!

मुड़ कर अपनी गुजरी हुई सोच को देखा
तो क्या देखा?
बेडिओं में बंधा घिसटता हुआ "मैं" देखा
मुस्कराता,इठलाता, सर ऊँचा
गर्माता, भरमाता
जैसे कोई गुमान ना हो,
सर पर कोई सामान न हो!
क्या मैं आज़ाद हूँ?
या अपनी आजाद सोच का गुलाम,
कितना आसान है खुद पर यकीं कर लेना
पर सवाल सर उठा रहे हैं!
डरूं या यकीन करूँ,
मेरे हैं मेरे पास आ रहे हैं
कैसे बतलाऊं मैं कहाँ जा रहा हूँ
कहाँ हूँ ये तो समझ लूँ!
आसमाँ तो कायम रहेंगे
पैरों तले की जमीं को परख लूँ
मंजिलों की क्या तलाश
एक दिन ये रास्ता मुकाम होगा
भटकना जायज़ है!और
(ओशो के शब्दों पर गौर करते करते...)

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साफ बात!

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मेरे गुनाह!

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