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काम तमाम!



आजकल बड़ा आराम है,
कहां कोई काम है,
न काम की चिंता,
न चिंता का काम,
वो कोई और हैं, जिनका
काम तमाम


सब कुछ चलता है,
हमेशा से चलता रहा है,
वही पुराना ढर्रा,
लकीर के फ़क़ीर
पीटते लकीर,
सांप सूंघ गया है,
जिम्मेदार कौन?


क्यों शोर जय जय है?
किस बात का भय है?
सच की क्या जगह है?
देश किस को कहते हैं?
क्यों लाखों भूखे रहते हैं?
बेघर हैं?
देश की छोड़िए?
अपना सर झुका लेते हैं!
शर्म से!



और क्या कहें,
भूख सामान बन गयी,
सस्ती श्रमिक जान बन गई,
रास्ता भूल गई ट्रेन या
दिशाहीन सरकार बन गई!



कानून कहाँ है?

किसका कानून?

किसके हाथ में है?

किसने हाथ लिया है?

किस पर चला है?

कमजोर बस हाथ मला है!




निसर्ग आया

तूफ़ान की तरह,  

और गुजर गया,

हमारा कहाँ कुछ किधर गया?

फूल बिखरे चादर बन,

और किसी का संसार उजड़ गया!

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