किस्से बहुत हैं तेरे मेरे अफसानों के,
ग़नीमत है के बात अब भी अधूरी है?
कहानी पूरी भी नहीं है न अधूरी है,
समझ लीजिए कैसी ये मजबूरी है?
कोई पूछे ऐसी भी क्या मजबूरी है?
ख्वाइशें एक-दूजे से अभी अधूरी हैं!
सुबह मेरी है अक्सर रात उनकी है,
मर्ज़ीओं को जगह अपनी पूरी है?
यूँ तो मान जाएं हर बात उनकी,
पर वो कहेंगे ये क्या जीहजूरी है?
साथ भी हैं उनके और उनसे दूर भी,
आदतों की अपने यूँ कुछ मजबूरी है!
गुस्से में भी सारी बात उनसे ही,
एक दूसरे के खासे हम धतूरे हैं!
अब भी ख़ासा सवाल ही हैं आपस में,
आपसी समझ बनने को ये उम्र पूरी है!
दोनों के अपने अपने मिज़ाज हैं,
साथ कायम होने ये भी जरूरी है!
बंजारों वाली तबीयत है, तरबियत भी,
और फिर थोड़ा बहकना भी जरूरी है!
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