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बोध गया?

किसी की बोधगया और,
किसी का बोध गया
क्यों‌ हैं‌ इंसान युँ मज़हबी
सालों का शोध गया,
बुद्ध होगा मन जो आपका क्रोध गया,


पर कहाँ कोई प्रभू समझता है,
आदमी को बस प्रभुत्व ही जमता है,
'भगवान के नाम दे दे' बोला तो भिखारी हो',
भगवान के नाम लेने वाले शिकारी क्यों नहीं?


खुदा का नाम, पुजारियों का बकरा है,
 बकरे को तो फ़िर भी खुली हवा मिलती है,
और उसकी साँसे,
चारदिवारी के अंदर धुएँ में पलती है,
कौन समझेगा जहाँ बस मान्यता चलती है?


बस हाथ लग जाये तो बात बन जाये,
दिल छुने की रीत गयी,
मुक्त होने का बोध गया,
सही रस्ता क्या दिखलायेंगे,
पंड़ित--मौलवी,पादरी--रब्बी

ये सब मलिकेमज़हब,
जो सफ़र था आज़ाद होने का,
बेड़ियों में ड़ालके, बन बैठे
भक्तों के सरपरस्त,

युँ तो रस्ते में पड़ा कोई भी मज़बूर
आपको इंसान बना देता है, बशर्ते
आप अपनी अकीदत का सट्टा न खेले हों,


यूँही सत्ता के गलियारे में
पैसे के जोर को चढावा नहीं‌ कहते,
पुँजीवाद है, नम्बर 1 ही की बस इज़्जत है,
जाहिर है, जहाँ पूँजी होगी वही वाद भी,
बेहतर होने को मज़हबी फ़साद भी,



चल रही है कबड़्डी जोर-शोर से,
साँसे टूटने का नाम नहीं‌ लेतीं,
रामरामरामरामराम,
अल्लाहाल्लाहाल्लाहाल्लाहाअल्लाह
बुद्धबुद्धबुद्ध,वाहेगुरुवाहेगुरु,
ईसाईसाईसा,




मोहब्बत का फ़लसफ़ा धर्म सारा,
क्यों नफ़रत के बीज बो गया,
दौड़ बची है बस, इंसा कहीं खो गया,
माथे पे रामनाम और जमीर सो गया,



दिल छुने की रीत गयी,
मुक्त होने का बोध गया,
रोम जाते रहिये, काशी, काबा या बोधगया,
पुछिये खुद से पहले,
क्या इंसा होने का बोध गया?

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