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चार दिन बचपन!

हम भी बच्चे है!
हमारे भी नाम हैं,
हम भी खेलते हैं,
हाँ! हमें चीज़ें नहीं लगती खेलने के लिये!

नहीं, नहीं, लगती तो हैं,
लकड़ी का टुकडा,
मिट्टी का ढेला, जमीन,
दीवारें,
कभी कभी हम भी कपड़े पहनते हैं,
कभी मट्टी से भी काम चला लेते हैं,

काम,
अपने से छोटे को गोदी उठाना,
अब खेल लो,
या झेल लो,
सच्चाई, जो साथ होती है,
साथी नहीं,

हम हर रोज़ सीखते हैं,
अनुभव से, अभाव से,
और अपने पर न होते
किसी भी यकीन के प्रभाव से
क्लास में पीछे की जगह से,
क्यों हमें ही साफ़ करना पड़ता है,

शौचालय, उसकी वज़ह से,
स्कूल में मास्टर छड़ी से,

पर आप क्यों परेशान होते हैं,
हम इंसान नहीं हैं,
हम एक जात है,
मुसहर, मेहतर, ड़ोम,
हम गिनती में नहीं आते,
फ़िर भी अगर आप जानना चाहते हैं,
तो जल्दी करिये,

हमारा बचपन छोटा रहता है,
और हमारी गोद जल्दी भरती है,
आने वाले अगले बचपन से
बचपन,
और बड़े होने के बीच के
मंज़ुर और मज़बूर अपने
सचपन से!








(पटना कि धनरुआ ब्लॉक में लालसाचक क्लस्टर में मुसहर समाज़ के बच्चों कि सच्चाई के साथ साक्षात्कार की कटी हुई जहनी फ़सल! बात यहाँ खत्म नहीं होती शुरु होती है, अगले एक साल इन बच्चों के साथ खेल से मेल चलता रहेगा)


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